• इस गली के मोड़ पर दोराहा है

    सरिता ने फोन पर चहकते हुए कहा था-कल की फ्लाइट से आ रही हूं सुधा। मुझे यह अप्रत्याशित लगा तो पूछ लिया-अरे, इतने दिनों बाद, अचानक

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    - विद्याभूषण

    सरिता ने फोन पर चहकते हुए कहा था-कल की फ्लाइट से आ रही हूं सुधा। मुझे यह अप्रत्याशित लगा तो पूछ लिया-अरे, इतने दिनों बाद, अचानक। कैसे-कैसे ? कोई खास बात ? जवाब मिला-नहीं यार, समझो, बस चेंज के लिए। क्या नहीं आऊं ? मैंने अपना अंदाज सुधार लिया-नहीं, नहीं। एकदम आ जाओ। बड़ा मजा आयेगा। उसकी आवाज थोड़ी स्थिर हो गयी थी-एक ही जगह, यहां रहते-रहते बोर हो गयी हूं। लगा चेंज हो जाये तो कुछ अच्छा लगेगा। निर्मल ने मुझसे पूछा है- कहां जाओगी ? तो अकेले सफर के लिए मुझे कोई और जगह नहीं सूझी। मैंने कह दिया-भैया के पास जाऊंगी। अपने बचपन का शहर। सहेलियों के बीच। और क्या! बस।

    सुधा का फोन जब से आया, मैं उधेड़बुन में पड़ गयी, कि अपने बारे में उसे क्या बताऊंगी! क्या-क्या बता सकती हूं। ओमप्रकाश जी के बारे में उसे शायद अब तक कुछ भी पता नही होगां, कि तीन साल तक संग-साथ मेरे साथ गृहस्थी चला कर अब वह मेरे साथ नहीं रहते। अपनी मां के साथ रहते हैं। उनकी मां ने हमारे प्रेम विवाह को मान्यता नहीं दी तो नहीं ही दी। बाबूजी के अचानक गुजर जाने के बाद वे अकेली हो गयी थीं। उस सूरत में मां के पास रहना एक बेटे के नाते उनका फर्ज बनता था। यही तो उन्होंने मुझे समझाया था। मैं उनके साथ वहां नहीं गयी कि मेरी उपस्थिति से सास जी की पुरानी टीस  ताजा हो जायेगी कि मेरे कारण ही बेटा उनसे दूर हो गया था। ओम जी ने मुझसे पूछा था कि क्या मैं अभी उनके साथ रह लूंगी। धीरे-धीरे तनाव की स्थितियां नार्मल्सी की ओर मुड़ ही जायेंगी। उस दिन मैं दरवाजे तक आ कर उन्हें वहां जाते चुपचाप देखती रही। उस नाजुक मोड़ पर बस इतना ही कह पायी थी-मैं सोचूंगी। आंखें भर आयी थीं लेकिन आंसुओं को मैंने जब्त कर लिया था। मन में उदासी का सन्नाटा घिर आया था। माहौल आंधी में उजड़ गये वीरान बगीचे की तरह हो रहा था।

    कल पांच महीने पूरे हो जायेंगे इस बात के। वे हर इतवार या फिर छुट्टी के दिन दोपहर में मेरे पास चले आते हैं और शाम घिरने पर मुझे कहीं शापिंग के नाम पर घर से बाहर ले जाते हैं। साग-सब्जी, फल-मिठाई या घर-गृहस्थी के छोटे-मोट़े सामान खरीद कर हम दोनों घर लौटते हैं। चाय-नाश्ते के साथ थोड़ी गपशप होती है। फिर देर रात होने से पहले वे अपनी मां के पास लौट जाते हैं। मेरा इन्तजार उसी समय से शुरू हो जाता है कि वे फिर कब आयेंगे! यही रूटीन बन गयी है हमारी। मैं देख रही हूं, उनकी उन्मुक्त हंसी इधर मुस्कुराहटों में सिमट गयी है। शुरू के दिनों में देह सुख की उनकी पहल पर पत्नी होने के नाते मैं ना नहीं कह पाती थी, अब बहुत मुश्किल से खुद को तैयार करती हूं। मन में यह खयाल हमेशा आता है कि उनके बढ़ते हाथों को रोक दूं, लेकिन मन डरता है कि इस रुख से हम दोनों के बीच झूल रही रिश्ते की बचीखुची डोर भी कहीं टूट न जाये!

    क्या मैं यह सब कह सकूंगी सुधा से ? एक समय था कि जब हम दोनों जिगरी दोस्त थीं। हमारी हर बात साझा हुआ करती थी। यहां अब तक लोग यही समझते हैं कि वह मेरी सहमति से अपनी मां की देखभाल के लिए उनके पास रहते हैं और बाकी वक्त हमदोनों एक दूसरे के संग खुशी-खुशी गुजार रहे हैं। वैसे किसी ने मुझसे इस बारे में कभी कुछ पूछा नहीं और ना ही मैंने किसी को कुछ बताया है। लेकिन ओम जी की ओर से मैं दावे के साथ कुछ भी नहीं कह सकती। हाट-बाजार में, सार्वजनिक जगहों पर यहां-वहां हमदोनों को संग-साथ आते-जाते देख कर कुछ दूसरी बात कोई सोच भी कैसे सकता है! मेरे मायके वाले दूसरे शहर में रहते हैं और इस बीच यहां कोई आया भी नहीं। बातें फोन पर नार्मल ढंग से होती रहती हैं। मुझसे भी, ओम से भी।

    इधर यह फिक्र सताने लगी है कि इस तरह कब तक चलेगा! ओम कहते हैं, मां की बूढ़ी देह कितने दिन टिकेगी! धीरज रखो, हम फिर से पहले की तरह समय बितायेंगे। तुम्हें  अकेलापन बोर करता होगा जरूर, लेकिन मैं तो लगभग हर दूसरे दिन तुम्हारे पास आया करता हूं। हमारा कोई काम इस व्यवधान से रुका या अंटका हुआ नहीं है। हम दोनों की लाइफ की रूटीन पूरी डिस्टर्ब हो गयी है जरूर, लेकिन यह टेम्पररी दौर है। एक दिन मुझे बहुत उदास देख कर वे कहने लगे-ऐसा करो, तुम महीने-दो महीने के लिए अपने भैया-भाभी के पास चली जाओ। थोड़ा चेंज हो जायेगा तो तुम फ्रेश महसूस करोगी। इस बीच मैं मां को समझाने की पूरी कोशिश करूंगा कि वह तुम्हारे बारे अपनी जिद्दी सोच बदले। उम्मीद है, ऐसा ही होगा। तब सब कुछ मनचाहे ढंगे से चलने लगेगा। तुम धीरज रखो और मुझे माहौल बदलने के लिए थोड़ी मोहलत दो।

    वे कई दूसरे सपने भी दिखाते हैं। अपना घर मेरा ऐसा ही सपना है। वे कहते हैं, पापा का घर अपना ही है न! कोई दूसरा वारिस तो है नहीं। कुछ दिन के लिए मां की ज्यादती हम झेल लें तो यह बड़ी प्रापर्टी अपने आप अपनी हो जायेगी। एक तो किराये के इस मकान से पिंड छूटेगा और हम अपनी आमदनी को पुराने घर की रिमॉडलिंग में लगा सकेंगे। यही सब सोचते हुए मैंने इस बदलाव के लिए खुद को तैयार किया है। बोलो, क्या करूं! मां को नहीं देखूं तो लोग कहेंगे, जोरू का गुलाम है। फिर मैंने जो भी कदम उठाया है, तुमसे राय लेकर ही उठाया न! बोलो, अब क्या करूं मैं! मुझे क्या कुछ कम परेशानी है इनदिनों ?

    यह तो हुई उनकी बात। मैं अपने बारे में क्या कहूं! किससे कहूं ? हर समय कोई बेचैन पंछी अपने पंख फड़फड़ाता रहता है मेरे अंदर। घर में कोई छोटा बच्चा नहीं। हम दोनों इस 'होने' को कुछ समय के लिए टाल रहे थे। दो व्यक्तियों की गृहस्थी में महरी की जरूरत मुझे नहीं महसूस हुई कभी। अब यह अकेलापन बहुत चुभता है। किससे बातचीत हो! टीवी के साथ कितना वक्त गुजारा जा सकता है! कॉलेज की सहेलियां अपनी-अपनी ससुराल पहुंच गयी हैं। किसके पास हंसने-बोलने के लिए जाऊं ? उनकी सलाह के मुताबिक भाई-भाभी के पास चली तो जाऊं, लेकिन उन दोनों के सवालों के जवाब कैसे दे पाऊंगी! मेहमान नहीं आये ? क्या बात है! तुम पहले की तरह खुश नहीं लग रही। एक सच को छुपाने के लिए कई झूठ का सहारा लेना पडेगा। क्या यह सब ...उतना...कुछ हो पायेगा मुझसे ?ं शायद मैं इतना बड़ा नाटक नहीं कर पाऊंगी। कोई न कोई दिन भेद खुल ही जायेगा। तब भाई-भाभी मेरे बारे में क्या सोचेंगे!

    रोज एक ही बात दस तरह से सोचते हुए मन थक जाता है। तनाव के तार पर झूलता हुआ मन निढाल होने लगता है। ओम की फिक्र धड़कनों को थका देती है। सारा दिन वे तो दफ्तर में होंगे। दोस्तों या कलिग्स के बीच होंगे। तरह-तरह के कामों में लगे हुए होंगे। अपनी मां से बतिया रहे होंगे। यहां मैं अकेली क्या करूं ? समय बिताना बहुत मुश्किल है। सबसे मुश्किल काम। कोई उपाय नहीं। दो कमरे का घर एक खुली जेल बन गया है। शुरू में एकाध बार मकान मालकिन से मिलने, उनके पास बैठने चली गयी थी। अब वहां जाने का मन नहीं होता। डर लगता है, कहीं वे ओमप्रकाश का हालचाल पूछने लगें तो मैं क्या जवाब दूंगी! झूठ बोल कर निकल जाने की आदत अपनी रही नहीं। अब सीखने का समय कहां हैं!

    इधर मन में खयाल आता है कि मैं कहीं कोई काम यानी नौकरी पकड़ लूं। लेकिन क्या-क्या कर सकती हूं मैं ? कभी सोचा भी नहीं था कि किसी दिन ऐसी नौबत भी आ सकती है। मैं यहां भी अनाड़ी रह गयी। और नौकरी भी क्या मेरे इन्तजार में खड़ी है। सबसे पहले खाली जगहों की खोज में लगो, अखबार और इंप्लॉयमेंट न्यूज के पन्ने पलटो। इंम्प्लॉयमेंट एक्सचेंज में नाम दर्ज कराओ। फॉर्म जुटाओ, आवेदन करो, इम्तहान की तैयारी में जुटो। फिर इंटरव्यू, कोई पैरवी, कुछ जुगाड़। कोशिशों का एक लंबा सिलसिला चलेगा। यही सब तो सुनती हूं लोगों से।  उनसे पूछूंगी। वे बहुत नाराज होंगे। हो सकता है, मुझे कुछ गाइड करें। कुछ समझ में नहीं आता कि मैं कैसे शुरुआत करूं। उनके सामने मेरा मुंह खुलता ही नहीं। बस, कठपुतली की तरह उनके कहे मुताबिक जहां तहां डोलती फिरती हूं। इससे तो अच्छा होता, मुझे मौत आ जाती। सारी मुश्किलें खत्म। लेकिन मुझे कोई बीमारी भी तो नहीें है। वह होती तो कितना अच्छा होता।

    ससुर जी के क्रिया-कर्म में मैं वहां डरते-डरते गयी थी। तीन दिनों तक सास जी से नजरें चुराती रही। छुपते-छुपाते वह हर काम निबटाती गयी जो मेरे जिम्मे आया। रिश्ते-नाते के जो लोग वहां आये थे, उनके सामने मैं सुघड़ बहू का रोल कुशलता से निभा रही थी। लेकिन पूरी चौकसी के साथ सास जी के सामने आने से बचती भी रही। कहीं वे सबके सामने डांटने न लग जायें! मनहूस, कुलच्छनी,  घर तोड़ने वाली... सबसे ज्यादा इसी इल्जाम से तो मैं डरती थी। आज भी डरती हूं। बहस मेरे नेचर में नहीं है। घर-परिवार के बड़ों के साथ तो हरगिज नहीं। सभी ताज्जुब करते होंगे कि ओम के साथ अपनी पसंद के ब्याह के मामले में मैं किसी से नहीं दबी! उनकी  मजबूती पर मुझे पूरा भरोसा था। शायद इसीलिए। लेकिन आज का सवाल तो यह है कि अब आगे क्या होगा। और मैं क्या करूं!

    तीसरे दिन सरिता मेरे घर आयी। शाम का अंधेरा धिर चुका था। लैंप पोस्ट रोशन हो गये थे। मेरी गली के घरों में बत्तियां जल चुकी थीं।

    उस दिन सरिता आयी तो पुराने दिनों, खास तौर पर कॉलेज की हलचलों को याद करते हुए गपशप में कई घंटे  कैसे निकल गये, यह पता ही नहीं चला। चाय-नाश्ते के बाद उसे बिदा करते हुए मैंने अगली मुलाकात के लिए उसके घर खुद आने का प्रॉमिस कर लिया। अपनी पहल पर। उसे दोबारा यहां बुला कर मैं कोई जोखिम लेना नहीं चाह सकती थी। वह भी खुशी-खुशी इसके लिए राजी हो गयी। मेरे ब्याह में वह नहीं आयी थी। उन दिनों वह अपनी ससुराल में थी। इसलिए ओम से उसकी देखादेखी भी नहीं हुई थी। इसलिए उसके साथ उनकी चर्चा का खास कोई मौका नहीं आया। दीवार पर टंगी हमारी  पिक्चर देख कर वह बोली-तो यही हैं श्रीमान जी! जोड़ी तो बहुत जंच रही है! मैं चुपचाप मुस्कुराती रही।  इस तरह मैं जो चाहती थी, वही हुआ। उस अवसर को मैंने सही ढंग से मोड़ लिया था। मुझे अच्छा लगा। खुद पर विश्वास भी हुआ कि मैं अब भी हर परिस्थिति में फिट रह सकती हूं।

    ओम अपने तय समय पर आते-जाते रहे। मैंने कई बार उनको अपनी मन:स्थिति बतायी। वे धीरज रखने की सलाह देते रहे। मैं जऱा भी संतुष्ट नहीं हो पायी। चुप रही। बचपन से मिले संस्कारों की सीमा रेखा को तोड़ पाना आसान नहीं लगा । मैं अपनी उधेड़बुन को किसी नतीजे तक नहीं ले जा सकी। उनको साफ-साफ कुछ बता भी नहीं पायी। घुलती रही। घुटती रही। धीरे-धीरे मैं समझ गयी कि किसी न किसी दिन मुझे अपनी हिचक खतम करनी ही होगी। उसके बाद ही कोई न कोई निदान निकल सकेगा।

    कल शाम को ओम आये तो मुझे चुप देख कर पूछने लगे- आज ज्यादा सुस्त लग रही हो। क्या बात है ? तबीअत ठीक है ? मेरा मुंह खुला-कई रोज से आपसे कुछ पूछना चाहती थी। वे मुस्कराये-पूछो, पूछो । जल्दी पूछो। क्या बात है, खुल कर बताओ। मुझे अपना गला फंसता हुआ जान पड़ा, फिर भी उनसे कहने लगी-देखिए जी, दिन भर घर में अकेले रहते-रहते मन उकता गया है। सोचती हूं, अपने  को किसी काम में लगा दूं। इस तरह दो कमरे में चक्कर काट-काट कर मैं बीमार हो जाऊंगी। इससे अधिक और क्या कहूं। आप ही कोई उपाय सुझाइये। ओम बोले-तो तुम क्या करोगी ? नौकरी ? मैं खुश हुई-हां, हां। क्या उसमें कोई बुराई है ?

    फिर आगे ज्यादा बातचीत नहीं हुई। वे चुप रहे। जब खाना तैयार हो गया तो धीरे-धीरे सिर झुकाये खाते रहे। लौटने से पहले मुझे नजदीक बुलाया, मेरे कंधे थपथपाये और बाहर निकलते हुए बोलते गये- मैं सोचूंगा, और कोई रास्ता निकालने की कोशिश करूंगा। इस गली के मोड़ पर दोराहा है। मैं उन्हें वहां तक देखती रही। 

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